आजकल जितनी भी साहित्यिक पत्रिकाएं निकल रही हैं उनमें वर्तमान सदी के बाजारवाद की प्रमुख भूमिका है। कविता, कहानी, संस्मरण, जीवनी जैसी प्रमुख साहित्यिक विधाओं के साथ साथ अन्य विधाओं में भी इसे महसूस किया जा सकता है। हंस, कथादेश, प्रगतिशील वसुधा, नया ज्ञानोदय जैसी प्रमुख साहित्यिक पत्रिकाओं के अलावा अक्षरा, साक्षात्कार, परती पलार जैसी पत्रिकाओं में एक ऐसा लेखन हो रहा है जो आने वाली पीढ़ी के लिए हिंदी साहित्य का नया स्वरूप प्रस्तुत कर रहा है। बाजारवादी साहित्य की प्रवृतियां किसी भी तरह से प्रगतिशील विचारधारा की विरोधी नहीं है। बल्कि यह कहा जा सकता है कि जिस मान्यताओं को प्रगतिवाद आम जन तक नहीं पहुंचा पाया उसे बाजारवादी प्रवृतियों ने अल्प समय में सहज सुलभ बना दिया है। सामान्यतः हिंदी के ख्यातिनाम आलोचक यह कह सकते हैं कि इसने हिंदी का स्वरूप बिगाड़ कर रख दिया है। लेकिन जब संचार माध्यमों इंटरनेट, मोबाईल आदि को उपयोग साहित्यिक यात्रा के विकास में किया जाएगा तो उसका स्वरूप अतर्राष्ट्रीय होगा। जिसके लिए विश्व की अन्य भाषाओं के शब्दों को हिंदी को आत्मसात करना ही पडे़गा। (शेष अगले अंक में )
saamyik vishay par badhiyaa aalekh, agle ank kee prateekshaa rahegee...
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