पत्रिका: पाखी, अंक: जुलार्ह 2011, स्वरूप: मासिक, संपादक: प्रेम भारद्वाज, पृष्ठ: 96, मूल्य: 20रू(वार्षिक 240रू.), ई मेल: pakhi@pakihi.in , वेबसाईट: http://www.pakhi.in/ , फोन/मो. 0120.4070300, सम्पर्क: इंडिपेडेंट मीडिया इनीशियेटिव सोसायटी, बी-107, सेक्टर 63, नोएड़ा 201303 उ.प्र.

पत्रिका पाखी का समीक्षित अंक पूर्व के अंकों के समान कहानियों व अन्य विधा की रचनाओं से भरपूर है। अंक में प्रकाशित कहानियों में स्वप्नजीवी(वल्लभ डोभाल), कच्चे आम की महक(संजय कुमार कुंदन), अतरघट(राजकमल), बंद मुट्ठी(स्वाति तिवारी), बेटी बेचवा(जयश्री राय) एवं सात फेरों की शरण में(आद्या प्रसाद पाण्डेय) प्रमुख हैं। जयश्री राय एवं स्वाति तिवारी को छोड़कर अन्य रचनाकारों की कहानियों में यह पढ़कर बड़ा अजीब सा लगता है कि आखिर क्यों कहानियों को आजकल वर्तमान समाज का विश्लेषण करने की प्रयोगशाला बनाया जा रहा है? पत्रिका की कविताएं कहानियों की अपेक्षा अधिक असरदार है। नीलाभ, पूनम सिंह, चंद्रसेन यादव, अश्वघोष एवं संजय सुमन की कविताएं सिद्ध करती हैं कि कविता केवल कविता न होकर सामाजिक परिवर्तन का विशिष्ठ माध्यम है। पत्रिका के इस अंक में अरसे बाद एक अच्छी ग़ज़ल पढ़ने में आयी है जिसे प्रेमरंजन अनिमेष ने लिखा है, यह ग़ज़ल इस विधा के पैरामीटर पर भी काफी हद तक ठीक है। राजकुमार एवं वीरेन नंदा के लेख ठीक ठाक कहे जा सकते हैं। प्रसन्ना, राजीव रंजन गिरि, विनोद अनुपम के स्तंभ की सामग्री में भी नयापन है। कथाकार अखिलेश का स्मरण लो वह दिखाई पड़े हुसैन पत्रिका की उपलब्धि कही जा सकती है। अजीत कुमार एवं राजेन्द्र रावत की लघुकथाएं भी प्रभावित करती है। पत्रिका की अन्य रचनाएं, समीक्षाएं भी स्तरीय हैं।

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