पत्रिका-हंस, अंक-दिसम्बर.09, स्वरूप-मासिक, संपादक-राजेन्द्र यादव, पृष्ठ-96, मूल्य-25 रू.(वार्षिक 250रू.), सम्पर्क-अक्षर प्रकाशन प्रा. लि. 2/36, अंसारी रोड़, दरियागंज, नई दिल्ली 110002, फोनः (011)2327077
कथा प्रधान पत्रिका का यह अंक अपनी रचनागत विविधता के कारण उल्लेखनीय है। पत्रिका किसी न किसी वजह से हमेशा चर्चा के केन्द्र मंे रहती है। अंक में प्रकाशित कहानियों में - लूनाटिक(नरेन्द्र नामदेव), वही सच है(डाॅ. प्रमोद कुमार सिंह) एवं सूरज के आसपास(डाॅ .सुशीला टाकभोरे) अपनी विषयगत नवीनता के कारण पाठक का ध्यान आकर्षित करती है। ख्यात पत्रकार एवं विचारक प्रभाष जोशी जी पर रामशरण जोशी का आलेख ‘जाना लोकवृत के एक योद्धा का’ विस्तृत रूप से जोशी जी के व्यक्तित्व से अवगत कराता है। जय श्री राय का आलेख (जिन्होंने मुझे बिगाड़ा कालम के अंतर्गत) उनकी निजता के साथ साथ पाठक का भी ध्यान रखता है तथा उसे साथ लेकर चलता है। बजरंग बिहारी तिवारी ‘सेन्टर तो नामवर जी का है’ के द्वारा जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय में श्री नामवर जी के योगदान तथा विद्यार्थियों में उनकी लोकप्रियता से अवगत कराता है। अनवर सलीम व सुनील पाठक की ग़ज़लें नवीनता लिए हुए है। जिन लाहौर नहीं वेख्या ओ जनमाइ नई’(अजित राय) पत्रिका की सबसे अधिक ध्यान आकर्षित करने वाली रचना है। पत्रिका की अन्य रचनाएं, समीक्षाएं, पत्र, समाचार आदि भी अपना महत्व प्रतिपादित करते हैं।
विशेषः ‘जिन लाहौर नइ वेख्या ओ जन्माइ नई’ संभवतः हिंदी का अकेला ऐसा नाटक है जो पिछले बीस वर्षो में हिंदी के साथ साथ विभिन्न भारतीय भाषाओं में तो लगातार हो ही रहा है, वाशिंगटन, सिडनी, करांची, आबूधबी, दुबई आदि विश्व के कई शहरों में भी हो रहा है। इस नाटक के साथ सैकड़ों कहानियां जुड़ी हुई हैं।’(इन कहानियांे व अन्य जानकारी के लिए पढ़िए हंस दिसम्बर .09) (हंस के दिसम्बर .09 अंक से साभार)

2 टिप्पणियाँ

  1. इस अच्छी जानकारी के लिये आप का धन्यवाद

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  2. हंस का यह अंक मै पढ़ रही हूँ ..इसकी कहानी सूरज के आसपास पढ़ी ...डॉ सुशीला टाक्भोरे ने इसे लिखा है ...जो प्रकृति से दूर किसी हालात में नहीं रह सकती ...यहाँ तक की अपने मेजबान के घर में ताला बंद होने के बावजूद वह बाहर चली जाती हैं ...मेजबान जो की पुलिस विभाग में नौकरी करते हैं ...उनसे इस बात पर नाराजगी प्रकट करते हैं की वह रात में बाहर क्यूँ गयीं ... पर लेखिका को उनका यह व्यवहार पसंद नहीं आता ... साथ की उन्हें उन महाशय का अपनी पत्नी के साथ किया गया व्यवहार भी पसंद नहीं आता ..लेखिका का सोचना हैं की उनकी पत्नी अपने पति के सामने इतना झुकती क्यूँ हैं .....
    कुल मिलकर कहानी अपने आप में अंत तक बांधे रहती है ...
    इसके अलावा राजेश रेड्डी की ग़ज़लें ...' जिसको भी देखो तेरे दर का पता पूछता है , कतरा कतरे से समुन्दर का पता पूछता है ' तथा एक गम कई खुशियों को निगल जाता है , ये समुन्दर है जो नदियों को निगल जाता है ' अच्छी लगी ...रेड्डी जी की किताब ' आसमान से आगे ' पढने लायक है ...

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