पत्रिका-साक्षात्कार, अंक-दिसम्बर.08, स्वरूप-मासिक, सलाहकार-श्री मनोज श्रीवास्तव, श्रीराम तिवारी, प्रधान संपादक-देवेन्द्र दीपक, संपादक-हरिनारायण, पृष्ठ-120, मूल्य-15रू.,(वार्षिक150रू), संपर्क-साहित्य अकादेमी, म.प्र. संस्कृति परिषद, संस्कृति भवन, बाण गंगा, भोपाल म.प्र. (भारत)
पत्रिका का दिसम्बर .08 अंक साहित्यिक सामग्री से भरपूर है। इस अंक में चन्द्रकांत पाटिल, पे्रमशंकर रघुवंशी, सत्यवान, पल्लवी तिवारी तथा सुदर्शन ‘प्रियदर्शनी’ की अच्छी कविताओं को शामिल किया गया है। पे्रमशंकर रघुवंशी की कविता ‘दुकान के मार्फत ही जाने जाएंगें हमारे घर’ आज के समय में बाजारवाद के हावी हो जाने की ओर संकेत करती है। आज हर व्यक्ति, व्यक्ति न होकर काम करने का उपकरण हो गया है। जिसे कवि ने बहुत ही सूक्ष्मतापूर्वक विश्लेषित किया है। चंद्रकांता की कहानी ‘निर्जन में उत्सव’ तथा विभा रानी की कहानी ‘हर समय एक रत्नाकर’ में कुछ अधिक ही विवरण तथा डिटेल्स का समावेश हो गया है जो कथा की कथात्मकता में बाधा डालती सी प्रतीत होती है। ‘निर्जन में उत्सव’ कहानी में उत्सव जैसा कुछ पढ़ने में नहीं आता है। अनिल माधव दवे का आलेख ‘शताब्दी के पांच काले पन्ने’ एक विचारपूर्ण रचना है जो हमारे अतीत के बारे में पुर्नविचार के लिए कुछ नए प्रश्न सुझाते हैं। हमेशा की तरह अमृतलाल बेगड़ ने अपनी ‘नर्मदा परिक्रमा से पाठक को बांधे रखने में सफलता प्राप्त की है। कन्हैयालाल मिश्र ‘प्रभाकर’ की आत्मकथा ‘मैं कैसे लेखक बना’ पढ़कर यह जाना जा सकता है कि लेखक बनने के लिए किन किन यातनाओं से होकर गुजरना पड़ता है। ज्योत्सना मिलन का आलेख ‘भारतीय संदर्भ में स्त्री विमर्श’ नारी की सृजनात्मकता पर पाश्चात्य तथा भारतीय वर्ग विभेद से हटकर विचार करता है। उच्च तथा निम्न वर्ग का विभेद न करते हुए लेखिका ने स्त्री की मौलिक प्रतिभा पर हो रहे अन्याय पर भी विचार किया है। पत्रिका की समीक्षाएं अन्य साहित्यिक स्तंभ पूर्व अंक की तरह नई जानकारियां उपलब्ध कराते हैं। इस अच्छी पत्रिका को अपनी पैठ अधिक पाठकों तक बनाने की आवश्यकता है।

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