(अधिक जानकारी के लिए प्रथम भाग का अवलोकन करें)
हंस मूलतः कथा प्रधान पत्रिका है। इसके संस्थापक प्रेमचंद हैं। चंूकि वे स्वयं एक प्रगतिशील कथाकार हैं इसलिए वर्तमान संपादक श्री राजेन्द्र यादव ने इसके मूल स्वर में बिलकुल भी परिवर्तन नहीं किया है।
समीक्षित अंक की प्रमुख कहानियों में से एक ‘पेड़ लगाकर फल खाने का वक्त नहीं’ (सुभाष चन्द्र कुशवाहा) एक ऐसी कहानी है जेा वर्तमान राजनीतिक अवसरवाद की तह तक जाती है। कहानी का पात्र ‘संतराम’ अपने सहयोगियों को माध्यम बनाकर मंत्री पद तक पहंुचता है। लेकिन उस पद पर जाते ही अपने कठिन दिनों में काम में आने वाले मित्रों को भुला देता है। वह अपनी प्रेमिका के माध्यम से अनजान लोगों के ऊल-जलूल काम करके धन संग्रह करता है। जिन लोगों ने उसे साथ दिया था वे केवल आश्वासनांे के सहारे ही डूबते उतराते हैं। यही आज के समय का राजनीतिक चरित्र है जो हमें विश्व में नीचा देखने के लिए बाध्य करता है।
रमणिका गुप्ता ने ‘ओह ये नीली आंखें’ कहानी का तानाबाना कुछ इस तरह बुना है कि वह पाठक को अंत तक बांधे रखता है। कहानी पुरूष की मनोवृति को उजागर करने में पूरी तरह कामयाब रही है। पति के साथ यात्रा करते समय नीली आंखों वाले सहयात्री का पत्नि के शरीर को पाने की इच्छा रखना तथा उस इच्छा को स्त्री पात्र के माध्यम से व्यक्त करना कहानी की एक अन्य खूबी है। रमणिका गुप्ता ने लिखा है, ‘एक स्त्री आजाद मुक्त स्वतंत्र और - बस, एक मनुष्य एक जीवंत जिंदगी जो जिंदा रहती है, जो न मृत्यु से जाती है न समाज से।’ आज के समाज का सच है।
सोहन शर्मा की कहानी ‘वो आखिरी बार सैन फ्रांसिस्को में देखी गई थी’ भी महिला पात्र ‘प्रिया’ के आसपास बुनी गई है। एन.आर.आई. पति को पसंद करने वाली प्रिया जब अमरीका जाती है तो अपने पति का जन्म जन्मांतर तक साथ निभाने की सौगंध खाती है। लेकिन वहां की चकाचैध देखकर विस्मित रह जाती है। यकायक उसे अपने कैरियर की चिंता हो आती है। जिस पुरूष को उसने कभी देखा तक नहीं था उसके कहने पर वह विवाह का प्रस्ताव ठुकरा देती है। उसके पश्चात सभ्य कहलाने वाले समाज द्वारा उसे लूटा और ठगा जाता है। अति महत्वाकांक्षी स्त्रीयों के लिए यह कहानी एक सबक है। इस अंक की अनूठी विविधतापूर्ण कहानियों के लिए संपादक को साधुवाद दिया जाना चाहिए।

2 टिप्पणियाँ

  1. सर, मै अपने ब्लॉग पर अभी मात्र साहित्यकारों का सामान्य परिचय ही अभी दे रहा हूँ,साथ ही उन साहित्यकारों को भी इंगित कर रहा हूँ जिससे हिन्दी साहित्य की दिशा व धारा बदलती है। अतः मै उनके साहित्य ,विचारधारा ,शैली की कुछ समय बाद आलोचना व समीक्षा करूँगा । मै मानता हूँ कि आचार्य शुक्ल जी पर बहुत ही विषद समीक्षा करने की जरुरत है,जो मै कुछ समय बाद अपने ब्लॉग पर हिन्दी साहित्य का इतिहास, कड़ी में करूँगा। अतः इस सन्दर्भ में आपके स्नेह और सहयोग की मुझे जरुरत है, ताकि मै इस कार्य को और अधिक उपादेय बना सकूं।

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